❃प्राचीन वैदिक काल मनुस्मृति और स्वर्णकार❃
स्वर्णकारों का इतिहास वैदिक काल सतयुग से ही रहा है।उसका प्रमाण मनुस्मृति है।स्वर्णकार की वैदिक काल में कोई जाती नही थी जो स्वर्णकार का काम करता था वो स्वर्णकार माना जाता थाजिन क्षेत्रीयो ने स्वर्णकार व्यवसाय पकड़ लिया उनको परशुराम जी ने नही मारा जो उस समय क्षेत्रीय स्वर्णकारों के आश्रित होकर रहे वो भी क्षेत्रीय थे तो स्वर्णकार भी क्षेत्रीय ही थे लेकिन व्यवसाय की वजह से सत्ययुग से ही उनको स्वर्णकार की उपाधि मिल गई जो क्षेत्रीय स्वर्णकार व्यवसाय में लग गया उसे स्वर्णकार की उपाधि से माना गया
ब्रामण को शर्मा और क्षेत्रीय को वर्मा की उपाधि सतयुग में ही ऋषीयो ने दे दी
जो मनुस्मृति में संदेश है।व्यवसाय के आधारित जाती का नाम मनु ने दिया स्वर्णकार नाम मनु की देन है।
जो मनुस्मृति में उल्लेखित है वैदिक भाषा संस्कृत में स्वर्णकार का अर्थ है स्वर्ण अथवा सोने का काम करने वाला। ये स्वर्णकार शब्द आया है वैदिक काल से जो ( स्वर्ण ) सोने का काम करते थे जिनको स्वर्णकार कहा गया ! स्वर्णकार शब्द की उत्पति वैदिक काल में धातु के नाम पर हुई !वैदिक काल में ही स्वर्ण का काम करने वालो को स्वर्णकार नाम दे दिया गया !ब्रह्मा ने मनु, मनुष्य को कहा है पहले मनुष्य सब सम्मान था कोई जाती नही थी मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है|यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से|मनुस्मृति के संदेश से ही कर्म के आधार पर मुनियों ने चार वर्ण में विभाजित किया ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य,ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैंविद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है|प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र |पाखंडी, गलत आचरण वाले, छली – कपटी, धूर्त, दुराग्रही, वो शूद्र वर्ण में आता है, नामकरण सस्कार में भी वर्ण विभेद का विचार किया गया,ब्राह्मण का मंगल सूचक नाम रखा जाए तथा उपाधि हो शर्मा इसी प्रकार क्षत्रिय का नाम सक्ति सूचक रखा जाए उपाधि हो वर्मा, वेश्य का नाम धन सूचक रखा जाए उपाधि भी धन शुद्र का नाम निन्दनिए होना चाहिए उपाधि हो दास
स्वर्ण का काम करने वालों को स्वर्णकार,मिटटी का काम करने वालो को कुम्भकार, रथ का काम करने वालो को रथकार ,कपड़े बुनने वाले को बुनकार नाम दिए गए चमड़े का काम करने वालो को चर्मकार,ये नाम मनुस्मृति के आधार पर ऋषीयो ने दिए उस वक्त न कोई ब्रह्माण था नही कोई क्षेत्रीय था सब मनुष्य सम्मान बताए गए कर्म के आधारित जाती बनाई गई,मनुस्मृति क्या है ?मनुस्मृति ब्रह्मा की वाणीं है, जो ऋषीयो को दिया गया मनुष्य की व्यवेस्था के लिए संदेश है मनुस्मृति में मनुष के लिए जन्म से मर्तु तक के कानून बनाए गए मनु का संदेश के हिसाब से जन्म से जाती का नही है कर्म से व्यवसाय को जाती से जोड़ा गयास्वर्णकारों का शुरुवाति इतिहास वैदिक काल से चला आया हैऋग्वेद में मनु को मानव-जाति का पिता कहा गया हैमनुस्मृति हिन्दू धर्म का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है।मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। मनुस्मृति को सभी स्मृतियों से और गौतम धर्मसूत्र से भी प्राचीन कहा है।भविष्य पुराण द्वारा उद्धृत मनुस्मृति के श्लोकों की चर्चा की है। बृहस्पति ने, जिनका काल है 500 ई., मनुस्मृति की प्रशंसा की है।अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है। मनु ने मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है।अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र।मनु कहते हैं- ‘न्मना जाजयते शूद्र:’अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद् बाहु राजन्य कृत:।उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद) अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पति हुई,शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है
और शूद्र ब्राह्मणत्व राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4.1.13)धृष्ट नाभाग के पुत्र थे, परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण 4.2.2)आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण 4.2.2)
प्राचीन काल से गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।
वर्ण का अभिप्राय वरण करना है! इसके अतिरिक्त वर्ण शब्द "रंग" के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है वक्ति के कुत्यो ( व्यवसाय ) व अर्जित गुणों (जन्म पर आधारित) का तात्प्रिय "सत्वगुण" रजोगुण" और तमोगुण" से है ब्राह्मण वर्ण का सम्बन्ध सत्वगुण के होने के कारण इसका वर्ण स्वेत है क्षत्रिय रजोगुण पर आधारित रक्त वर्ण है !एवं शुद्र तमोगुणी होने के कारण कृष्ण वर्ण माने जाते है! सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण के वर्णों से ही समाज को चार वर्गो में विभाजित किया जाता है !इन गुणों के आधार पर ही सभी वर्गो के कार्य निर्धारित होते है! हमारी समाजिक व्यवस्था का मूलाधार वर्ण व्यवस्था है!ये कहना अनुचित न होगा की समाजिक व्यवस्था का वर्ण व्यवेस्था का वही महत्व है! जो शरीर में रीढ़ की हड्डी का है!
❃मोर्य काल महात्मा बुद्द का समय❃
बोद्ध धर्म में जाती प्रथा का कड़ा विरोध किया गया, दिव्यावदान में वर्णन आता है! बोद्ध शाहित्य में वर्ण वेव्यस्था का स्वरूप जन्मना नही होकर कर्मना स्वीकार किया गया,अर्थात जो भी वक्ति तेजस्वी, तपस्वी,पंडित, विनित,एवं सदाचारी होगा वही ब्राह्मण पद का अधिकारी है! मनुष्य के कर्मानुसार ही ब्राह्मण,क्षत्रिय,वेश्य, शुद्र संघाए दी गई, वस्तुत है सब एक ही है! परन्तु शंगु काल में पून: वैदिक काल की स्थापना की गई! इस विषय में मालविकाग्निमित्र एवं महाभाश्य ग्रंथो में वर्णित यज्ञों के उल्लेख द्वारा प्रकाश पड़ता है! ऋग्वेद में पुरुष सूक्त वर्ण व्यवस्था का मूल स्रोत माना जाता है! जिसमे वर्णन आता है की विराट-पुरुष के मुख ब्राह्मण है, भुजाए क्षत्रिय है , उरु वेश्य है ,तथा पेरो से शुद्र की उत्पति हुई है, महाभारत में भी इसका विवरण आया है! वैदिक काल में वर्ण का तात्प्रिय रंग के आधार पर ही लिया गया आर्य श्वेत श्रेठ काम करने वाले मनुष्य और अनार्य कृष्ण वर्ण अनिती और नीच काम करने वाले दोनों के वर्ण रहन सहन पहनावा भिन्न भिन्न थे प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था इतनी मजबूत हो गई की मनुष्य ही नही देवताओ में भी थी !अग्नि और बृहस्पति देवता ब्राह्मण, और इंद्र, वरुण, यम देवता क्षत्रिय और वशु, रूद्र,मरुत,वेश्य तथा पूषा, शुद्र,थे यही नही ऋतुओ को भी वर्णों में बाँटा गया बसन्त ऋतु -ब्राह्मण,गीष्म ऋतू -क्षत्रिय एवं वर्षा ऋतू -वेश्य,शरद ऋतु शुद्र,
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मुझे मेरा गोत्र भरद्वाज और अल्ल सहस्त्रेमारिया बताई गई और छत्रिये सुनार बताया गया आप क्या मेरा इतिहास बता सकते हैं मेरा व्हाट्सप no है 7054180442
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